Bhagavad Gita Adhyay 2



इस अंश का सार (भावार्थ) इस प्रकार है —

अर्जुन युद्धभूमि में करुणा से अभिभूत होकर रो रहे थे। उनके हृदय में अपने ही स्वजनों के प्रति मोह और दया की भावना उत्पन्न हुई थी, परंतु यह दया आध्यात्मिक नहीं, भौतिक अज्ञान से उत्पन्न करुणा थी। इसीलिए श्रीकृष्ण, जिन्हें “मधुसूदन” कहा गया है, अब उस अज्ञान-रूपी राक्षस का संहार करने वाले हैं जो अर्जुन की बुद्धि पर छाया हुआ था।

भगवान् अर्जुन को यह समझाना चाहते हैं कि वास्तविक करुणा आत्मा के प्रति होनी चाहिए, न कि अस्थायी शरीर के प्रति। जो व्यक्ति आत्मा और शरीर के भेद को नहीं समझता, वही विलाप करता है और धर्म से गिर जाता है। भगवान् ने अर्जुन को झकझोरते हुए कहा कि यह कायरता और मोह उनके योग्य नहीं है। जो जीवन का मूल्य जानता है, उसके लिए यह दुर्बलता अपयश की ओर ले जाती है।

कृष्ण स्वयं परम सत्य हैं — वे ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के तीनों रूपों का स्रोत हैं। जैसे सूर्य का प्रकाश, सूर्य की सतह और सूर्य का केंद्र एक ही सत्य के तीन रूप हैं, वैसे ही ब्रह्म, परमात्मा और भगवान एक ही परम सत्य के तीन स्तर हैं, जिनमें पूर्ण अनुभव केवल भगवान कृष्ण के रूप में होता है। वे समस्त ऐश्वर्य, बल, यश, सौंदर्य, ज्ञान और वैराग्य से युक्त सच्चिदानंद-विग्रह हैं।

भगवान अर्जुन को “पृथा-पुत्र” कहकर स्मरण कराते हैं कि वह वीर क्षत्रिय है, कायरता उसके योग्य नहीं। झूठी दया और तथाकथित अहिंसा त्यागनी चाहिए। भीष्म और द्रोण जैसे पूजनीय जनों के प्रति सम्मान उचित है, पर धर्मयुद्ध से पीछे हटना अधर्म है। सच्ची दया यह नहीं कि अधर्म को बढ़ावा दिया जाए, बल्कि यह है कि धर्म की रक्षा के लिए आवश्यक कठोरता भी दिखाई जाए।

अंततः भगवान गीता के माध्यम से अर्जुन और समस्त मानवता को यह सिखाते हैं कि आत्मा शाश्वत है, शरीर नश्वर है, और जो आत्मा को समझ लेता है, वही वास्तविक करुणा और धर्म के मार्ग पर स्थिर रहता है।

इस अंश का भावार्थ यह है कि अर्जुन युद्धभूमि में गहरे मानसिक संघर्ष से गुजर रहे थे। उनके भीतर कर्तव्य और करुणा, धर्म और मोह, बुद्धि और भावना के बीच तीव्र द्वंद्व चल रहा था। वे यह समझ नहीं पा रहे थे कि युद्ध करके हिंसा करें या उससे बचकर भिक्षा से जीवन बिताएँ। दोनों ही विकल्प उन्हें पीड़ा दे रहे थे—क्योंकि अपने ही बंधुओं का वध कर वे जी नहीं सकते थे, और उन्हें जीवित छोड़कर वे धर्म का पालन भी नहीं कर सकते थे।

अर्जुन का यह भ्रम और द्वंद्व केवल भौतिक करुणा से उत्पन्न नहीं था, बल्कि एक संवेदनशील, आत्मनियंत्रित और पुण्यात्मा व्यक्ति के वैराग्य का सूचक था। अंततः जब वे अपनी बुद्धि और तर्कों से समाधान नहीं निकाल पाए, तो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की शरण ली। यह क्षण अत्यंत महत्वपूर्ण था, क्योंकि अब तक वे एक मित्र के रूप में संवाद कर रहे थे, पर अब वे शिष्य बन गए। उन्होंने कहा—“मैं आपका शिष्य हूँ, कृपया मुझे मार्ग दिखाइए।” यही क्षण भगवद्गीता के उपदेश का आरंभ बनता है।

अर्जुन का “कृपणता” का स्वीकार इस बात का प्रतीक है कि जो मनुष्य आत्म-साक्षात्कार का अवसर पाकर भी उसे उपयोग में नहीं लाता, वह कृपण कहलाता है। अर्जुन ने समझ लिया कि उनका स्नेह, मोह और परिवार के प्रति लगाव ही उनकी उलझनों का मूल कारण है, और केवल भगवान जैसे दिव्य गुरु ही इस भ्रम को दूर कर सकते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण इस समय मुस्कुरा रहे थे—मित्र की दया देखकर नहीं, बल्कि इस बात पर कि अब उनका प्रिय सखा एक सच्चे शिष्य की भूमिका में आ गया है। अब वे उसे नश्वर शरीर की सीमाओं से ऊपर उठाकर आत्मा की शाश्वत प्रकृति का बोध कराने वाले हैं। यही कारण है कि गीता का संवाद केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए है—जीवन के सभी भ्रमों से मुक्ति और आत्म-साक्षात्कार का दिव्य विज्ञान।

भगवान श्रीकृष्ण ने जब अर्जुन को संबोधित किया, तो उनके शब्दों ने अर्जुन की अज्ञानता पर सीधी चोट की। अर्जुन विद्वान की तरह बात कर रहे थे, लेकिन वास्तव में वे आत्मा और शरीर के भेद को नहीं समझ पाए थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि जो वास्तव में ज्ञानी है, वह न तो जीवित शरीर के लिए शोक करता है और न ही मृत शरीर के लिए, क्योंकि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है।

कृष्ण ने आगे स्पष्ट किया कि वे स्वयं, अर्जुन और सभी जीव सदा से विद्यमान हैं और सदा रहेंगे। व्यक्तित्व शाश्वत है — वह कभी नष्ट नहीं होता। मायावाद का यह विचार कि मुक्ति के बाद आत्मा अपना अस्तित्व खोकर ब्रह्म में लीन हो जाती है, गीता की शिक्षाओं के विपरीत है। भगवान ने स्वयं अपनी और अर्जुन की शाश्वत व्यक्तित्व की पुष्टि की, जिससे यह सिद्ध होता है कि भगवान और जीव दोनों नित्य चेतन हैं, केवल गुण और प्रभुत्व में भिन्न हैं।

कृष्ण ने यह भी समझाया कि आत्मा शरीर बदलती रहती है — बाल्यावस्था से युवावस्था, युवावस्था से वृद्धावस्था, और फिर मृत्यु के बाद दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। जैसे वस्त्र पुराने होने पर बदले जाते हैं, वैसे ही आत्मा भी शरीर बदलती है, पर वह स्वयं अपरिवर्तित रहती है। इसलिए मृत्यु केवल देह-परिवर्तन है, और उसके लिए शोक करना अज्ञान का लक्षण है।

भगवान ने अर्जुन को यह भी सिखाया कि सुख-दुःख, शीत-गर्मी की तरह, अस्थायी हैं और इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं। इन्हें सहन करना ही धर्म और आध्यात्मिक उन्नति का आरंभ है। जीवन में जो व्यक्ति अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख और दुःख से विचलित नहीं होता, वही वास्तव में धीर कहलाता है और वही मुक्ति का अधिकारी बनता है।

अंततः श्रीकृष्ण अर्जुन को याद दिलाते हैं कि वह कुन्ती और भरत वंश का गौरव है — उसकी विरासत उसे कायरता की नहीं, बल्कि कर्तव्य और धर्म की प्रेरणा देती है। इसलिए, अपने मोह को त्यागकर, उसे क्षत्रिय के धर्म का पालन करना चाहिए और अपने कर्तव्य में दृढ़ रहना चाहिए। यही दृढ़ता और समता ही मोक्ष की दिशा में पहला कदम है।

इस अंश का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा और शरीर के शाश्वत भेद को स्पष्ट कर रहे हैं। जो सत्यदर्शी हैं, उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि भौतिक शरीर अस्थायी और परिवर्तनशील है, जबकि आत्मा सनातन, अपरिवर्तनीय और अविनाशी है। शरीर हर क्षण बदलता रहता है — जन्म, वृद्धि, क्षय और मृत्यु के चक्र में — पर आत्मा इन परिवर्तनों से परे रहती है, वही चेतना का स्रोत है जो पूरे शरीर में व्याप्त होती है।

भगवान बताते हैं कि चेतना आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण है। जब तक आत्मा शरीर में है, शरीर जीवित और सक्रिय रहता है; जैसे ही आत्मा निकल जाती है, शरीर मृत और निष्प्राण हो जाता है। इस चेतना का विस्तार हर व्यक्ति में व्यक्तिगत है — यह दिखाता है कि हर शरीर में एक स्वतंत्र आत्मा स्थित है। आत्मा अत्यंत सूक्ष्म है, परंतु वह ही जीवन का मूल तत्व है। आधुनिक विज्ञान हृदय को ऊर्जा का केंद्र मानता है, पर शास्त्र बताते हैं कि वही हृदय आत्मा का निवासस्थान है, जहाँ परमात्मा भी उसके साथ विद्यमान हैं।

कृष्ण बताते हैं कि आत्मा को न कोई मार सकता है, न वह किसी को मारती है। शरीर नष्ट हो सकता है, लेकिन आत्मा सदा जीवित रहती है — वह जन्मरहित, मृत्युहीन, शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। जैसे वस्त्र पुराने होने पर बदले जाते हैं, वैसे ही आत्मा शरीर बदलती है, पर उसकी सत्ता अपरिवर्तित रहती है।

इस ज्ञान से यह स्पष्ट होता है कि अर्जुन को शोक करने का कोई कारण नहीं है। उसके प्रियजन आत्मा रूप में कभी नष्ट नहीं होंगे, केवल उनके अस्थायी शरीर का अंत होगा। सच्चा ज्ञान यही है — स्वयं को और दूसरों को शरीर नहीं, बल्कि आत्मा समझना। यही समझ मनुष्य को भय, मोह और शोक से मुक्त करती है, और यही भगवद्गीता का आरंभिक और सबसे गहन सत्य है।

इस अंश का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि आत्मा अविनाशी, शाश्वत, अचल और जन्म-मृत्यु से रहित है। जो व्यक्ति इस सत्य को जानता है, वह न किसी को मार सकता है और न ही किसी को मरा हुआ मान सकता है, क्योंकि वास्तविकता में कोई भी आत्मा नष्ट नहीं होती — केवल शरीर बदलता है।

हिंसा और अहिंसा का निर्णय भी इसी ज्ञान पर निर्भर करता है। जब कोई कर्म भगवान के आदेश से, धर्म की रक्षा के लिए किया जाता है, तो वह हिंसा नहीं, बल्कि न्याय का कार्य होता है — जैसे शल्यक्रिया रोगी को मारने के लिए नहीं, बल्कि उसे स्वस्थ करने के लिए की जाती है। अर्जुन का युद्ध भी ऐसा ही पवित्र कार्य है, क्योंकि वह भगवान के आदेश पर धर्म की पुनर्स्थापना के लिए किया जा रहा है।

भगवान बताते हैं कि आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीर धारण करती है, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र उतारकर नए वस्त्र पहनता है। आत्मा और परमात्मा का संबंध सनातन है — आत्मा अंश है, परमात्मा पूर्ण है। जब जीव इस संबंध को भूल जाता है, तब वह एक शरीर से दूसरे शरीर में भटकता रहता है; लेकिन जब वह भगवान की शरण लेता है, तब उसके सभी शोक समाप्त हो जाते हैं।

आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता, न अग्नि जला सकती है, न जल गीला कर सकता है, न वायु सुखा सकती है। यह आत्मा सर्वत्र विद्यमान है, लेकिन अपरिवर्तनीय और अदृश्य है। वह इतनी सूक्ष्म है कि किसी भौतिक साधन से दिखाई नहीं देती, पर चेतना के माध्यम से उसके अस्तित्व का अनुभव होता है।

भगवान बताते हैं कि शरीर नाशवान है, पर आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है। वह अणु के समान सूक्ष्म है, परंतु अनंत चेतना की धारा से जुड़ी है। यही ज्ञान अर्जुन को यह समझने में सहायता करता है कि युद्ध में किसी की मृत्यु नहीं हो रही — केवल शरीर का परिवर्तन हो रहा है। इस सत्य को जान लेने पर शोक, भय और मोह का अंत हो जाता है, और मनुष्य अपने कर्तव्य को दिव्य दृष्टि से देखता है, न कि भौतिक लगाव से।

इस अंश का सार यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को हर दृष्टिकोण से यह समझा रहे हैं कि शोक का कोई औचित्य नहीं है। चाहे कोई आत्मा के शाश्वत अस्तित्व में विश्वास करे या न करे, दोनों ही स्थितियों में दुःख और मोह का कोई कारण नहीं बनता। यदि आत्मा नित्य, अजन्मा और अविनाशी है, तो किसी की मृत्यु नहीं होती; और यदि कोई यह माने कि जीवन केवल शरीर का रासायनिक संयोजन है, तो भी शरीर के नष्ट होने पर शोक निरर्थक है, क्योंकि वह तो हर क्षण बदलने और समाप्त होने वाला है।

कृष्ण बताते हैं कि जन्म और मृत्यु भौतिक जगत के अपरिहार्य नियम हैं — जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मरता है, वह पुनः जन्म लेता है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक जीव आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं करता। इसलिए, बुद्धिमान व्यक्ति इन प्राकृतिक परिवर्तनों के लिए न तो व्याकुल होता है और न शोक करता है।

भगवान यह भी कहते हैं कि जैसे सभी वस्तुएँ पहले अप्रकट अवस्था में रहती हैं, फिर कुछ समय के लिए प्रकट होती हैं और अंत में पुनः अप्रकट हो जाती हैं, वैसे ही जीव भी शरीर धारण करता है और फिर त्याग देता है। इसलिए आरंभ और अंत दोनों ही अदृश्य हैं — विलाप केवल मध्य की अस्थायी अवस्था के लिए करना अज्ञान का लक्षण है।

आत्मा स्वयं अद्भुत है — न देखी जा सकती है, न मापी जा सकती है, न शस्त्रों से काटी जा सकती है। उसकी यह अद्भुतता इतनी गूढ़ है कि बहुत से लोग इसके विषय में सुनकर भी इसे नहीं समझ पाते। केवल वही व्यक्ति जो शुद्ध हृदय से भगवान की शिक्षाओं को स्वीकार करता है, आत्मा के रहस्य को जान सकता है और जीवन का लक्ष्य समझ सकता है।

अंततः श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि शरीर में निवास करने वाली आत्मा कभी मारी नहीं जा सकती। इसलिए जो वास्तव में आत्मा का स्वरूप जानता है, वह किसी के लिए शोक नहीं करता, बल्कि अपने कर्तव्य का पालन निडरता से करता है, क्योंकि मृत्यु केवल शरीर का परिवर्तन है — आत्मा की यात्रा नहीं रुकती। यही आत्म-साक्षात्कार का प्रारंभिक सत्य है, जो मनुष्य को भय, शोक और मोह से मुक्त करता है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि एक क्षत्रिय का कर्तव्य धर्म की रक्षा और अन्याय का विनाश करना है। युद्ध यदि धर्म के लिए हो, तो वह पाप नहीं बल्कि पुण्य का कार्य बन जाता है। जैसे ब्राह्मण यज्ञ में पशुबलि देकर भी पवित्र फल प्राप्त करते हैं, वैसे ही क्षत्रिय धर्मयुद्ध में भाग लेकर स्वर्ग के अधिकारी होते हैं। इसलिए अर्जुन का युद्ध से हटना न केवल उसके स्वधर्म की उपेक्षा है, बल्कि अपकीर्ति और अधोगति का कारण भी होगा।

कृष्ण अर्जुन को यह भी बताते हैं कि अपने कर्तव्य से पीछे हटना भय और अज्ञान का परिणाम है। एक सच्चा योद्धा मृत्यु से नहीं डरता, क्योंकि धर्म के लिए युद्ध करना ही उसका गौरव है। यदि वह जीतता है तो राज्य प्राप्त करेगा, और यदि मारा जाएगा तो स्वर्ग जाएगा। लेकिन यदि वह कायरता दिखाकर युद्ध से भागेगा, तो उसकी कीर्ति मिट जाएगी, लोग उसका अपमान करेंगे और यह अपमान मृत्यु से भी अधिक पीड़ादायक होगा।

इस प्रकार, श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि धर्मपालन में हिंसा भी अहिंसा से श्रेष्ठ है जब वह न्याय और कर्तव्य की रक्षा के लिए हो। क्षत्रिय का जीवन केवल तब सार्थक है जब वह धर्म की रक्षा के लिए साहसपूर्वक खड़ा हो।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझा रहे हैं कि संसार में अपयश मृत्यु से भी अधिक दुखद है। यदि अर्जुन युद्धभूमि से भय या मोहवश भाग जाता है, तो उसके शत्रु उसका अपमान करेंगे और उसकी वीरता पर प्रश्न उठाएँगे। ऐसे अपमान से बढ़कर उसके लिए कोई पीड़ा नहीं होगी। इसलिए, एक क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से पीछे हटना आत्महीनता का प्रतीक है।

कृष्ण उसे प्रेरित करते हैं कि धर्म के लिए युद्ध करना ही उसके जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य है। यदि वह युद्ध में मारा जाता है, तो उसे स्वर्गलोक मिलेगा; और यदि जीतता है, तो पृथ्वी पर राज्य भोगेगा। दोनों ही स्थितियों में उसका कल्याण निश्चित है। इसलिए उसे निष्काम भाव से, सुख-दुःख, लाभ-हानि या विजय-पराजय की चिंता छोड़कर केवल अपने कर्तव्य के पालन में लगना चाहिए। ऐसा कर्म पापरहित होता है और उसे कर्मबंधन से मुक्त करता है।

भगवान आगे बताते हैं कि वास्तविक ज्ञान का सार यही है—अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए नहीं, बल्कि भगवान की तृप्ति के लिए कर्म करना। जब मनुष्य अपना कार्य केवल कृष्ण के लिए करता है, तो उसका हर कर्म भक्ति बन जाता है, जो उसे दिव्य ज्ञान और अंततः मुक्ति की ओर ले जाता है। इस भक्ति-पूर्ण कर्म, जिसे बुद्धियोग या भक्तियोग कहा गया है, में कभी हानि नहीं होती। इस मार्ग पर किया गया थोड़ा-सा भी प्रयास स्थायी रहता है और जन्म-जन्मांतर तक आत्मा की प्रगति को सुरक्षित रखता है।

इस प्रकार, कृष्ण अर्जुन को कर्म से भागने के बजाय उसे दिव्यता में रूपांतरित करने की शिक्षा देते हैं—ऐसे कर्म में जो न भय से बँधा है, न फल की इच्छा से, बल्कि केवल भगवान की सेवा और धर्म की रक्षा के लिए किया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि जो व्यक्ति भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर दृढ़ निश्चय के साथ चलता है, उसका लक्ष्य केवल एक होता है — श्रीकृष्ण की तुष्टि। उसकी बुद्धि एकाग्र होती है और वह किसी भी परिस्थिति में अपने ध्येय से विचलित नहीं होता। यही दृढ़ विश्वास, जिसे “व्यवसायात्मिका बुद्धि” कहा गया है, आत्मा को परम सिद्धि तक पहुँचाने वाला मार्ग है।

भक्ति में यह दृढ़ निश्चय तभी आता है जब व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा से यह स्वीकार कर लेता है कि केवल कृष्णभक्ति करने से ही सभी कर्तव्य पूर्ण हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति जानता है कि यदि भगवान प्रसन्न हैं, तो सब प्रसन्न हैं। इसलिए वह सबका कल्याण करने के लिए केवल भगवान की सेवा में ही लगा रहता है। यह सेवा तभी सफल होती है जब वह किसी सच्चे आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन में की जाए, क्योंकि गुरु की प्रसन्नता से ही भगवान की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

इसके विपरीत, जिनकी बुद्धि स्थिर नहीं होती, वे वेदों के कर्मकांडों में फँसे रहते हैं। वे स्वर्ग, ऐश्वर्य, शक्ति और भोग की आकांक्षा में उलझे रहते हैं, यह सोचते हुए कि यही जीवन का लक्ष्य है। वे अल्पज्ञ हैं — उन्हें यह ज्ञात नहीं कि ऐसे सुख क्षणिक और बंधनकारी हैं। भौतिक सुखों की आसक्ति मन को अस्थिर करती है और समाधि — आत्मा पर केंद्रित स्थिरता — असंभव बना देती है।

कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वेदों में वर्णित ये कर्मकांड केवल आरंभिक साधन हैं, जो सामान्य लोगों को धीरे-धीरे उच्चतर ज्ञान की ओर ले जाते हैं। लेकिन सच्चा साधक उन भौतिक आकर्षणों से ऊपर उठकर त्रिगुणातीत — गुणों, द्वैतों, लाभ-हानि, सुख-दुःख से परे — आत्मा में स्थित रहता है। जब व्यक्ति इस स्थिति में पहुँचता है और भगवान की इच्छा पर पूर्णतः निर्भर हो जाता है, तभी उसका मन स्थिर होता है और वह वास्तविक भक्ति — शुद्ध कृष्णभावनामृत — को प्राप्त करता है।

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जैसे एक छोटे से कुएँ से प्राप्त होने वाले प्रयोजन एक विशाल जलाशय से भी प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही जो व्यक्ति वेदों के वास्तविक उद्देश्य—भगवान को जानने—को समझ लेता है, उसके लिए वेदों के समस्त कर्मकांड और अनुष्ठान स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। वेदों का अंतिम लक्ष्य कर्मफल या स्वर्ग नहीं, बल्कि कृष्ण की अनुभूति और उनके प्रति प्रेमपूर्ण सेवा है।

कृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। फल की इच्छा करने से व्यक्ति कर्मबंधन में फँस जाता है, जबकि निष्काम भाव से किया गया कर्तव्य उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। कर्तव्य न करना या कर्म के परिणामों से भयभीत होना भी आसक्ति का ही दूसरा रूप है, और यह भी बंधन का कारण बनता है। इसलिए अर्जुन को अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करना चाहिए, परंतु फल की चिंता त्यागकर — क्योंकि सच्चा योग यही है, समभाव से किया गया निष्काम कर्म।

भगवान स्पष्ट करते हैं कि योग का अर्थ केवल आसन या ध्यान नहीं है, बल्कि अपनी बुद्धि को कृष्ण की आज्ञा के अधीन करके कार्य करना है। जब कोई व्यक्ति केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है और अपने स्वामित्व की भावना त्याग देता है, तभी वह सच्चा योगी कहलाता है। वर्णाश्रम-धर्म का भी यही उद्देश्य है — विष्णु की तुष्टि।

जो व्यक्ति अपने कर्मों के फल को स्वयं भोगने की इच्छा रखता है, वह कृपण है — क्योंकि वह अपनी अमूल्य मानवीय ऊर्जा को भगवान की सेवा में नहीं लगाता। किंतु जो कृष्णभावनामृत में कर्म करता है, वह इसी जीवन में शुभ-अशुभ सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है। ऐसा योगी अपने कर्मों को कला में बदल देता है — भक्ति की कला में — और यही जीवन का परम सौंदर्य है।

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति भक्ति में लीन होकर अपने समस्त कर्मों को भगवान की सेवा में समर्पित कर देता है, वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है और वैकुंठ—उस स्थान पर पहुँचता है जहाँ न दुःख है, न भय, न मृत्यु। ऐसा भक्त समझ लेता है कि यह संसार केवल अस्थायी है और यहाँ प्रत्येक क्षण संकट से भरा है। किंतु जो भगवान की शरण ग्रहण करता है, उसके लिए यह महासागर एक छोटे से जलकुंड के समान हो जाता है, और उसका लक्ष्य होता है — भगवान के चरणकमलों की शरण।

जब बुद्धि अज्ञान और मोह के अंधकार से बाहर आती है, तब व्यक्ति वेदों के कर्मकांडों और भौतिक आकर्षणों से उदासीन हो जाता है। जैसे श्री माधवेंद्र पुरी ने कहा, केवल कृष्ण का स्मरण ही समस्त यज्ञों, स्नान, और तपस्याओं के समान फल देता है। जब कोई कृष्ण की भक्ति में पूर्णतः स्थापित हो जाता है, तो उसके लिए बाहरी नियमों और अनुष्ठानों का कोई अर्थ नहीं रह जाता, क्योंकि वह पहले ही उस लक्ष्य को प्राप्त कर चुका होता है जिसके लिए वे सभी विधियाँ बनाई गई थीं।

ऐसा भक्त समाधि की अवस्था में होता है — उसकी चेतना पूर्ण रूप से भगवान में तल्लीन रहती है। वह न वेदों की अलंकृत भाषा से विचलित होता है, न स्वर्गीय सुखों की लालसा रखता है। वह केवल अपने स्वाभाविक धर्म को समझता है — कि वह नित्य भगवान का सेवक है। यही आत्म-साक्षात्कार की परम सिद्धि है।

ऐसे कृष्णभावनाभावित व्यक्ति का जीवन अपने आप में दिव्यता का प्रमाण होता है। उसकी वाणी केवल भगवान के विषय में बोलती है, उसका मन केवल भगवान की सेवा में लगा रहता है, और उसका हृदय किसी भौतिक इच्छा से स्पर्श तक नहीं होता। उसकी संतुष्टि आत्मा में नहीं, बल्कि भगवान की प्रसन्नता में होती है। इसी अवस्था को भगवान श्रीकृष्ण “शुद्ध दिव्य चेतना” कहते हैं — जहाँ आत्मा अपनी नित्य सेवा और प्रेम में पूर्णतः तृप्त रहती है।

भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञानी या स्थितप्रज्ञ मुनि वही है जो सुख-दुःख, लाभ-हानि या सम्मान-अपमान जैसे जीवन के उतार-चढ़ाव से अप्रभावित रहता है। वह व्यक्ति न तो दुख में व्याकुल होता है, न सुख में उन्मत्त — उसका मन स्थिर और शांत रहता है क्योंकि वह सब कुछ भगवान की कृपा के रूप में देखता है। दुख मिलने पर वह उसे अपने पिछले कर्मों का परिणाम मानकर विनम्रता से स्वीकार करता है, और सुख मिलने पर उसे अपनी योग्यता नहीं बल्कि भगवान की अनुकंपा मानता है।

ऐसा भक्त आसक्ति, भय और क्रोध से रहित होता है क्योंकि उसका जीवन भगवान की सेवा में समर्पित होता है, न कि स्वयं की इन्द्रियतृप्ति में। उसकी इन्द्रियाँ उसी प्रकार संयमित रहती हैं जैसे कछुआ अपने अंगों को खोल के भीतर समेट लेता है — वह केवल भगवान की सेवा के लिए ही अपनी इन्द्रियों का उपयोग करता है, अन्यथा उन्हें नियंत्रण में रखता है।

कृष्णभावनामृत का यह “उच्चतर स्वाद” ही वास्तविक संयम का आधार है। नियमों और तपों से इन्द्रियों को दबाना कठिन है, पर जब मन कृष्ण की ओर आकर्षित हो जाता है, तब भौतिक भोग स्वतः ही फीके पड़ जाते हैं। जो व्यक्ति भगवान की भक्ति का रस चख चुका है, उसके लिए सांसारिक आकर्षण अर्थहीन हो जाते हैं।

इन्द्रियाँ अत्यंत शक्तिशाली हैं — वे विवेकशील मनुष्य के मन को भी भटका सकती हैं। महान ऋषि विश्वामित्र का उदाहरण बताता है कि केवल संयम से नहीं, बल्कि मन को कृष्ण में स्थिर करके ही इन्द्रिय-विजय संभव है। जब मन भगवान के चरणों की सेवा में लग जाता है, तब उसके भीतर से ही भोग की इच्छा मिट जाती है।

जैसा कि संत यमुनाचार्य और महाराज अम्बरीष के जीवन से स्पष्ट है, जब कोई प्रेमपूर्वक कृष्ण की सेवा में मग्न हो जाता है, तो भौतिक इन्द्रिय-सुख उसके लिए उतने ही तुच्छ हो जाते हैं जितने किसी तृप्त व्यक्ति के लिए बासी भोजन। यही स्थितप्रज्ञता की अवस्था है — जहाँ मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सब भगवान में लीन होकर पूर्णतः शांत और अचल हो जाती हैं।

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में करके अपनी चेतना को भगवान में स्थिर करता है, वही वास्तव में स्थितप्रज्ञ या स्थिर बुद्धि वाला योगी होता है। इन्द्रियों को जीतने की यह सिद्धि केवल कृष्णभावनामृत — अर्थात् भगवान की भक्ति में मन और कर्म को समर्पित करने — से ही संभव है।

राजा अम्बरीष इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं — उन्होंने अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को भगवान की सेवा में लगाया: मन को कृष्ण के चरणों में, वाणी को भगवान के गुणगान में, कानों को हरिकथा में, हाथों को मंदिर-सेवा में, आँखों को भगवान के रूप-दर्शन में, और हृदय को भगवान की इच्छा में। इस समर्पण ने उन्हें पूर्ण नियंत्रण और स्थिरता प्रदान की।

कृष्ण आगे समझाते हैं कि जब मन इन्द्रिय-विषयों का चिंतन करता है, तो आसक्ति उत्पन्न होती है; आसक्ति से वासना, वासना से क्रोध, और क्रोध से मोह व स्मृति-भ्रंश उत्पन्न होते हैं। जब स्मृति भ्रष्ट होती है, तो बुद्धि नष्ट हो जाती है और मनुष्य पुनः भौतिक पतन में गिर जाता है। अतः यह चक्र केवल तभी टूट सकता है जब इन्द्रियाँ भगवान की सेवा में लगाई जाएँ।

श्रील रूप गोस्वामी के अनुसार, जो वस्तु भगवान से संबंधित है, उसे त्यागना नहीं, बल्कि भगवान की सेवा में लगाना ही सच्चा वैराग्य है। कृत्रिम दमन या दिखावटी त्याग टिकाऊ नहीं होता — ऐसा व्यक्ति अंततः भोग की ओर लौट आता है। किंतु भक्त प्रत्येक वस्तु को भगवान की सेवा के लिए उपयोग करता है — चाहे वह भोजन हो, वस्त्र हो, धन हो या शब्द — सब कुछ भगवान का होता है। ऐसा उपयोग सब कुछ आध्यात्मिक बना देता है।

इस प्रकार, जो व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म करता है, वही उनके विशेष कृपा-पात्र बनता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य के लिए भौतिक दुःखों का कोई अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि उसकी चेतना पूर्ण रूप से भगवान में संतुष्ट होती है। यही वास्तविक योग की अवस्था है — जब मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सब एक ही दिशा में प्रवाहित होती हैं: कृष्ण की ओर।

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब तक मनुष्य परम पुरुष — अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण — से नहीं जुड़ता, तब तक उसकी बुद्धि स्थिर नहीं हो सकती, उसका मन शांत नहीं रह सकता, और बिना शांति के सुख संभव नहीं है। शांति का रहस्य यही है कि मनुष्य यह समझे कि कृष्ण ही समस्त यज्ञों और तपस्याओं के भोक्ता, सभी लोकों के स्वामी और प्रत्येक जीव के सच्चे हितैषी हैं। जब यह बोध दृढ़ हो जाता है, तभी मन स्थिर होकर वास्तविक शांति का अनुभव करता है।

जो व्यक्ति भगवान से संबंध खो देता है, उसका मन लक्ष्यहीन नाव की तरह भटकता रहता है — एक इन्द्रिय विषय उसकी चेतना को बहा ले जाता है। इसलिए, सभी इन्द्रियों को केवल भगवान की सेवा में लगाना ही मन को स्थिर करने की वास्तविक साधना है। यही “कृष्णभावनामृत” का सार है — इन्द्रियों का संयम किसी दमन से नहीं, बल्कि प्रेममय सेवा से होता है।

आत्मसंयमी व्यक्ति भौतिक द्वैतों से परे हो जाता है। जो संसार के लिए रात्रि है — अर्थात् भक्ति और आत्मचिंतन — वही उसके लिए जागरण का समय है, और जो संसार के लिए जागरण है — इन्द्रियभोग और विषयासक्ति — वह उसके लिए रात्रि समान है। ऐसा व्यक्ति भौतिक आकर्षणों से अप्रभावित रहकर आत्मा के प्रकाश में स्थित रहता है।

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति समुद्र के समान होता है — इच्छाएँ नदियों की तरह उसमें प्रवेश करती हैं, पर वह शांत रहता है, न बढ़ता है, न घटता। उसकी पूर्णता भगवान में स्थिर होती है, न कि किसी बाहरी उपलब्धि में। भौतिक इच्छाएँ आती हैं, पर उसे विचलित नहीं करतीं, क्योंकि उसकी संतुष्टि भगवान की सेवा में निहित है।

जो व्यक्ति अपनी सभी कामनाओं को भगवान की ओर प्रवाहित कर देता है और उनसे परे किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं रखता, वही वास्तविक रूप से शांत और सुखी रहता है। सकाम कर्मी, योगसिद्धि-लोभी और मोक्षवादी अपनी अधूरी इच्छाओं के कारण बेचैन रहते हैं; पर भक्त, जो केवल भगवान की प्रसन्नता में तृप्त है, वह सागर की भाँति अचल और पूर्ण शांति में स्थित रहता है — यही दिव्य सुख की अंतिम अवस्था है।

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में समझाते हैं कि वास्तविक शांति केवल उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है जिसने इन्द्रियतृप्ति की सभी इच्छाओं का त्याग कर दिया है, जो किसी वस्तु पर स्वामित्व का दावा नहीं करता और मिथ्या अहंकार से मुक्त होकर स्वयं को भगवान का नित्य सेवक समझता है। सच्चा त्याग इन्द्रियों को दबाना नहीं, बल्कि उन्हें भगवान की सेवा में लगाना है।

निष्कामता का अर्थ इच्छाओं का अभाव नहीं, बल्कि इच्छाओं का शुद्धीकरण है—जब व्यक्ति केवल कृष्ण की प्रसन्नता की इच्छा करता है। जैसे अर्जुन ने युद्ध किया, पर अपने लिए नहीं, केवल कृष्ण की आज्ञा से। यह अवस्था जानने से आती है कि सब कुछ कृष्ण का है (ईशावास्यमिदं सर्वम्), और जीव स्वयं भगवान का अंश है, उनके समान या उनसे स्वतंत्र नहीं। जब यह भाव स्थिर होता है, तब वास्तविक शांति और संतोष प्रकट होता है।

जो इस चेतना को प्राप्त कर लेता है, वह मोह और भय से मुक्त होकर ब्रह्म-निर्वाण, अर्थात् भक्ति और भगवान के धाम की अवस्था में प्रवेश करता है। यह कोई दूर की सिद्धि नहीं—खट्वांग महाराज की तरह कोई व्यक्ति एक क्षण में भी इसे प्राप्त कर सकता है, यदि वह पूर्णतः भगवान की शरण ले ले।

भगवद्गीता सिखाती है कि मृत्यु के बाद शून्यता नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन—आध्यात्मिक जीवन—प्रारंभ होता है। जब व्यक्ति इस जीवन में ही कृष्णभावनामृत को प्राप्त कर लेता है, तो वह उसी क्षण ब्रह्म की अवस्था में स्थित हो जाता है। यही ब्राह्मी स्थिति है—जहाँ मन, कर्म और चेतना सभी भौतिक बंधन से मुक्त होकर भगवान की सेवा में लीन होते हैं। यही सच्चा मुक्ति-मार्ग और गीता का सार है—कर्म, ज्ञान और भक्ति सबका अंतिम निष्कर्ष।

All glories to Srila Prabhupada 🙏 
Hare Krishna 🙏 

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